पटना

संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) की ओर से 2023 का जारी फाइनल रिजल्ट सुर्खियों में है। अखबारों, टीवी चैनलों से लेकर सोशल मीडिया पर UPSC का एग्जॉम क्रैक करने वाले कैंडिडेट्स की सक्सेस स्टोरी को प्रमुखता दी जा रही है। जिन कैंडिडेट्स ने देश के इस सबसे कठिन एग्जॉम को क्रैक किया है उनके घरों से लेकर गांव, समाज, कस्बे और जिले स्तर तक में खुशियां मनाई जा रही है। खुशियां मनाने के इन मौकों के बीच UPSC रिजल्ट में कुछ ऐसे आंकड़े हैं जो चिंता का विषय हैं। यह चिंता समाज की अधिकतम आबादी के लिए है। जी हां! आप बिल्कुल सही अंदाजा लगा रहे हैं, यह चिंता समाज के हिंदी समेत अन्य क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई-लिखाई करने वालों के लिए है।

एक नजर UPSC के रिजल्ट पर

संघ लोकसेवा आयोग ने 2023 में आयोजित हुई परीक्षा में कुल 1016 कैंडिडेट्स का रिजल्ट जारी किया है, जबकि नौकरियां 1143 पोस्ट के लिए निकाली गई थीं। इसके अलावा यूपीएससी ने 240 कैंडिडेट्स की रिजर्व लिस्ट रखी है। यानी अगर कुछ कैंडिडे्स किसी वजह से जॉब ज्वाइन नहीं करते हैं तो इन रिजर्व कैटेगरी के कैंडिडेट्स को मौका दिया जा सकता है। इस रिजल्ट में चिंता की बात यह है कि कुल 1016 कैंडिडेट्स में केवल 42 हिंदी मीडियम के लोगों का रिजल्ट हुआ है। इन 42 कैंडिडेट्स में एक ऐसा है जिसका ऑप्शनल इंग्लिश मीडियम है, क्योंकि उसका एक सब्जेक्ट कैमेस्टी (रसायन शास्त्र) है।

अब अगर इन 42 हिंदी मीडियम के पासआउट कैंडिट्स की समीक्षा करें तो कई चौंकाने वाली बातें सामने आती हैं। कुल 42 लोगों में 29 कैंडिडेट्स ऐसे रहे जिनका सब्जेक्ट हिंदी साहित्य रहा। चार-चार अभ्यर्थी इतिहास और भूगोल विषय के हैं। दो कैंडिडेट्स दर्शनशास्त्र के हैं। एक अभ्यर्थी राजनीति शास्त्र का है। एक का रसायन शास्त्र (जिसकी परीक्षा इंग्लिश में होती है)। बाकी बचे एक कैंडिडेट्स का विषय गुजराती साहित्य है।

 

हिंदी मीडियम से रिजल्ट देने में टॉप पर राजस्थान, सबसे पीछे बिहार

हिंदी मीडियम से जिन 42 कैंडिडेट्स का रिजल्ट हुआ है उनमें 18 अकेले राजस्थान के हैं। राजस्थान लगातार पिछले दो-तीन साल से नंबर वन पर बना हुआ है। दूसरे नंबर पर 12 रिजल्ट के साथ उत्तर प्रदेश नंबर दो पर है, जो आबादी के हिसाब से चिंताजनक है। वहीं मध्य प्रदेश के 9 रिजल्ट हुए हैं। बाकी बचे 3 रिजल्ट में IAS फैक्ट्री कहे जाने वाले बिहार से हिंदी मीडियम से केवल 1 रिजल्ट हुए हैं। छत्तीसगढ़ और गुजरात से एक-एक रिजल्ट हैं। इन 42 रिजल्ट में 37 लड़के हैं और 5 लड़कियां हैं।

 

टॉप रैंकर्स में भी हिंदी मीडियम पीछे

UPSC रिजल्ट 2023 में हिंदी मीडियम से पासआउट कैंडिट्स रैंकिंग में भी पीछे हैं। हिंदी मीडियम में सबसे अच्छी रैंक मोहन लाल को मिली है, जिनका ऑप्शनल सब्जेक्ट रसायनशास्त्र है। यहां बता दें कि रसायनशास्त्र की परीक्षा अंग्रेजी में होती है। इसके बाद हिंदी साहित्य से परीक्षा देने वाले 135वीं रैंक हासिल करने वाले विनोद कुमार मीणा हैं। वहीं 22 वर्षीय अर्पित ने 136वीं रैंक हासिल करने वाले हिंदी मीडियम के कैंडिडेट हैं। इसके अलावा विपिन दूबे को 238वीं रैंक और आदिवासी कैंडिडेट मनीषा धुर्वे ने 257वीं रैंक हासिल किया है। ये कैंडिडेट्स हिंदी मीडियम के टॉपर्स हैं। बाकी बचे कैंडिडेट्स की रैंकिंग 500 के पार है।

यूपीएससी मेंस देने वालों के आंकड़ों में भी हिंदी मीडियम पीछे

यूपीएससी 2023 की परीक्षा में 15000 कैंडिडेट्स ने मेंस की परीक्षा दी थी। इसमें 1400 कैंडिडेट्स इंग्लिश मीडियम के और महज 500 हिंदी मीडियम के हैं। पासआउट पर्सेंटेज में देखें तो 500 में 42 का फाइनल रिजल्ट हुआ वहीं 14000 में 950 रिजल्ट इंग्लिश मीडियम वालों के हुए।

हिंदी मीडियम से यूपीएससी की तैयारी करने वाले अधिकांश बच्चों की सोशल इकोनॉमी बैकग्राउंड उतनी ठोस नहीं होती है। बहुत बढ़िया स्कूल और कॉलेज नहीं मिला होता है। हिंदी मीडियम के 90 फीसदी बच्चे ऐसे कॉलेजों से आते हैं जिनका बेहद कम अवसरों पर कॉलेज लेक्चर सुनने का मौक मिलता है। ये बच्चे केवल तीन साल कॉलेज में एडमिशन लिए होते हैं। जरा सोचिए जो बच्चा 12-13 साल अच्छे स्कूल में और तीन साल अच्छे कॉलेज में पढ़ा हो, जहां रेगुलर क्लास हुए हों, वाद-विवाद प्रतियोगिताएं हुई हों। अब अगर हम सोचें कि इन 16 साल की गैपिंग को महज डेढ़ दो साल की कोचिंग से दूर कर लेंगे तो यह बेमानी है। दूसरी बात यह है कि इंग्लिश में जितने अच्छे और नए कंटेंट है उतना हिंदी में नहीं है। कुछ मामलों में पेपर चेक करने वालों के माइंडसेट का भी असर दिखता है। आमतौर पर सामाजिक प्रभाव होता है कि जो अंग्रेजी में लिखता है समाज उसे ब्रिलियंट मानकर चलता है। इन सब बातों को मिलाकर हिंदी मीडियम के कैंडिडेट्स के रिजल्ट पर असर दिखता है।

IAS की फैक्ट्री क्यों हो रहा पीछे?

यूपीएससी रिजल्ट 2023 का विश्लेषण करने पर सबसे ज्यादा चिंता का विषय बिहार और उत्तर प्रदेश को लेकर है। बिहार और उत्तर प्रदेश देश के दो ऐसे राज्य हैं जिसे एक जमाने में IAS की फैक्ट्री कहा जाता रहा। आज आलम यह है कि करीब 15 करोड़ की आबादी वाले बिहार से महज एक हिंदी मीडियम वाले कैंडिडेट का रिजल्ट हो रहा है। बिहार में हर साल बिहार बोर्ड से करीब 16 लाख बच्चे हिंदी मीडियम से 10वीं की बोर्ड परीक्षा देते हैं। वहीं इंग्लिश मीडियम से अधिकतम ढाई से 3 लाख बच्चे। यानी बिहार का करीब 80 से 85 फीसदी आबादी अपने बच्चों को हिंदी मीडियम से पढ़ा रहे हैं या यूं कहें कि उनकी हिंदी मीडियम की औकात है। यहां हिंदी मीडियम का मतलब अधिकतर सरकारी स्कूलों से है। जब राज्य की इतनी आबादी हिंदी मीडियम सरकारी स्कूलों पर डिपेंड है फिर भी सरकारें इसपर ध्यान क्यों नहीं दे रही हैं।

इस वक्त लोकसभा चुनाव चल रहा है। इस मौके पर सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों बिहार की एजुकेशन सिस्टम को दुरुस्त करने के दावे कर रही है। भारी संख्या में सरकारी टीचरों की भर्ती करने के दावे कर रही है। इसके बाद बावजूद UPSC का रिजल्ट इन दावों की सच्चाई खोल रही है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अलग-अलग दलों के साथ गठबंधन कर करीब 18 साल से बिहार की सत्ता पर काबिज हैं। वह और उनके साथ लंबे समय तक सत्ता में साझेदार रही बीजेपी लगातार बिहार में हुए विकास कार्यों का बखान करती है, लेकिन सच्चाई यह है कि इन वर्षों के शासन में बिहार का एजुकेशन सिस्टम सुधरने के बजाय गर्त में गया है। इसे इस रूप में भी समझा जा सकता है कि जब बिहार IAS की फैक्ट्री कहलाता रहा तब यहां गिने चुने बच्चे ही इंग्लिश मीडियम के थे। यानी सरकारी स्कूलों से निकले बच्चे ही देश के सबसे कठिन एग्जॉम में कमाल करते रहे। दूसरी बात यह साफ होती है कि पिछले 30-32 साल में बिहार की सत्ता पर जितनी भी पार्टियां सत्ता रही उन्होंने शिक्षा के स्तर को उठाने के बजाय उसे गर्त में ही ले जाने का काम किया है।

 

केंद्र सरकार अंग्रेजीदा लोगों को दे रही मौके?

आज से 25-30 साल पहले तक कहा जाता था कि गरीब मां बाप अगर अपने बच्चों को इंजीनियरिंग, मेडिकल और मैनेजमेंट की पढ़ाई नहीं करा पाते थे तो उनके सामने UPSC एक उम्मीद की किरण होती थी। बिहार उत्तर प्रदेश समेत तमाम हिंदी प्रदेश के गांवों में मां अपने बच्चों को बचपन से ही कलक्टर बनने की जिज्ञासा जगाती देखी जाती थी। बिहार में तो इसपर कई आंचलिक गीत भी गाए जाते रहे हैं। लेकिन साल दर साल हिंदी मीडियम के कैंडिडेटस का रिजल्ट जिस तरह से खराब होता जा रहा है उससे तो यही लगता है कि केंद्र सरकार भी चाहती है कि देश का अफसर बनने के लिए अंग्रेजीदा होना जरूरी है। इसका दूसरा पहलू यह है कि जब हम अंग्रेजीदा कैंडिडेट्स को लगातार अफसर बना तो रहे हैं, लेकिन क्या यह कभी समीक्षा करने की जरूरत महसूस नहीं की कि इंजीनियरिंग और मेडिकल बैकग्राउंड से पढ़े लिखे कैंडिडेट्स ग्राउंड पर कितने सफल होते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि अंग्रेजी के चक्कर में हम समाज में केवल अफसर थोप रहे हैं।

यूपीएससी 2020 के टॉपर बिहार के कटिहार के रहने वाले शुभम कुमार रहे। शुभम खुद खुले मंच से स्वीकार चुके हैं कि उनकी शिक्षा दीक्षा इस तरह से कराई गई कि उन्हें अपनी आंचलिक भाषा तक नहीं मालूम है। भला सोचिए अंग्रेजी कल्चर में पले बढ़े अफसर के पास अगर एक ठेठ देहाती अपना दुख दर्द लेकर पहुंचेगा तो क्या वह उस सहजता से अपनी बात कह पाएगा और क्या वह अफसर जमीनी हकीकत को उतने अच्छे तरीके से महसूस कर पाएगा। ऐसे कई तमाम सवाल हैं जो हिंदी मीडियम के कम रिजल्ट को देखकर भारत के हर कमजोर के मन में उठ रहे हैं।

Source : Agency