दस दिन की विपश्यना साधना और बदल गई जिंदगी
गौतमबुद्ध कहते हैं -
''हमारा तृष्णा से व्याप्त मन ही दुख का कारण है, उसी से जीवन में दुख उत्पन्न होता है, हम दुखी होते रहते हैं ।
तृष्णा का कारण अविद्या है ।अविद्या का निरोध ही दुख मुक्ति का मार्ग है ।अगर मन को तृष्णा रहित कर दिया है, तो मन राग, द्वेष और मोह से मुक्त हो जाता है । ''
मैं भी किन्हीं कारणों से तनाव और दुख में था। मुझे तनाव मुक्ति का मार्ग चाहिए था। मेरे मित्र की सलाह पर मैंने विपश्यना की राह चुनी। दो साल पहले इन्हीं दिनों में मैं दस दिन की विपश्यना साधना कर रहा था। शिविर में जाने से पहले मैंने विपश्यना साधना के चमत्कारी प्रभावों के बारे में पढ़ा सुना ज़रूर था, लेकिन पत्रकार वाले दिमाग़ के चलते इसके प्रभावों को ज़्यादा गंभीरता से नहीं लिया था। भिक्षु की तरह दस दिन ज़िन्दगी बिताने को लेकर मन में तरह-तरह के विचार और शंकाएँ भी थीं। सबसे बड़ी चुनौती आश्रम से बाहर की दुनिया के संपर्क से दस दिन तक दूर रहने की थी। न कोई मोबाइल, न कोई व्हाट्सप्प, न कोई न्यूज़। यही नहीं, दस दिन का आर्य मौन भी रखना था। किसी भी मसले पर दिनभर चकल्लस करने वाले मेरे जैसे इंसान के लिए दस दिन मौन धारण करना सबसे ज़्यादा दुष्कर कार्य था। विपश्यना साधना में साधक को सिर्फ मौन नहीं रहना होता है, बल्कि वह संकेतों से भी अपनी भावनाओं और विचारों को व्यक्त नहीं कर सकता। मौन रहने की चुनौती पर मैं विजय हासिल कर सकूँगा, इस पर मेरी जीवनसंगिनी अलका तक को भरोसा नहीं था। बिटिया रिमिषा के लिए यह आश्चर्य का विषय था।
जीवन के वे दस दिन मेरे लिए हमेशा अविस्मरणीय रहेंगे। अद्भुत ईश्वरीय अनुभव था। भोपाल में प्रकृति की गोद में स्थित विपश्यना केंद्र में प्रवेश करते ही अहसास हो गया था कि साधना काफी कठिन होने वाली है। भौतिक सुख-सुविधाओं के आरामदायक दायरे में रहने वाले लोगों को ऐसी जगह रास नहीं आतीं, फिर मुझे तो दस दिन रहना था। दस दिवसीय शिविर में प्रारंभिक तीन दिन मुझे ज़रूर 'आध्यात्मिक जेल' जैसे लगे, लेकिन इसके बाद साधना में मैं ऐसा लीन हुआ कि समय का पता ही नहीं चला। विपश्यना साधना ने जीवन के प्रति मेरे दृष्टिकोण को सकारात्मक रूप से पूरी तरह बदल कर रख दिया है। इन बदलावों को मैं स्वयं अनुभव करता हूँ। हर दिन- हर पल। महर्षि गौतम बुद्ध के शील, समाधि और प्रज्ञा के सिद्धांत मेरे जीवन में इस कदर रच-बस गए हैं कि जीवन पथ अब आलोकित दृष्टिगोचर होता है।
मेरे जीवन में आए बदलावों को मैं लोगों के साथ बिंदुवार साझा करना चाहता हूँ। मैं नहीं कहता मैंने कोई बड़ा कार्य किया है। विपश्यना के अनुभवों को साझा करने के पीछे मेरा सम्यक उद्देश्य यही है कि लोग जानें वे सही दिशा से कितना भटक गए हैं। भोग-विलास, आसक्ति, आत्ममुग्धता और अहंकार जैसे अवगुणों ने उनको कितना घेर लिया है। जरा आत्म बोध जगा कर तो देखें। साधना में न कपाल भाति, न अनुलोम-विलोम, न सोहऽम्, न योग क्रिया, न सुदर्शन क्रिया आदि किसी भी क्लिष्ट बातों में नहीं जाना है। बस देखना है और अवलोकन करना है।
1. दिमाग़ी समरसता हासिल कर ली : विपश्यना साधना से मैंने दिमाग़ी समरसता हासिल कर ली है। किसी एक ही मुद्रा में एक घंटे तक लगातार बैठे रहना आसान नहीं होता। शिविर के दौरान रोजाना चौदह घंटे की साधना में एक-एक घंटे के ऐसे तीन सत्र होते थे।अधिष्ठान की इस मुद्रा में बिना हिले-डुले रहना होता है। शरीर में पैदा होने वाली संवेदनाओं से पूर्ण निर्लिप्त होकर। यह क्रिया जीवन में आवेगों को नियंत्रण में रखने की प्रेरणा देती है, यानी किसी भी हालात में अतिरेक से भरी प्रतिक्रिया नहीं। पहले मैं यूँ ही भड़क उठता था।
2. अनित्यबोध का ज्ञान : जीवन में कुछ भी स्थायी नहीं है। हर चीज़ निरंतर बदलती रहती है। चाहे हमारे आवेग हों, घर या ऑफिस में तनाव हो या हमारा बुरा वक्त हो, सब कुछ अनित्य है। सब गुज़र जाने वाला है। इस सिद्धांत को जीवन में उतारने से अवसाद घटता है। अनित्य बोध का ज्ञान होने से मैं जीवन का आनंद पहले से ज़्यादा लेने लगा हूँ।
3. मंदिरों में जाना कम कर दिया : विपश्यना का एक अन्य जादुई प्रभाव यह हुआ है कि मैंने मंदिर जाना कम कर दिया है। मेरे भीतर की बोधि जाग चुकी है। ईश्वर हमारे भीतर है। उसे किसी मंदिर में खोजने की आवश्यकता नहीं है। वैसे भी सनातन धर्म में इतनी विकृतियां आ चुकी हैं कि विभिन्न कर्मकांडों की आड़ में पंडित गण हमारी आस्था के नाम पर व्यापार कर रहे हैं। पंडितों ने लोगों को यह कभी नहीं बताया कि भगवान ज्ञान यज्ञ से भी पूजित हो जाते हैं। गीताशास्त्र के १८ वें अध्याय में इसका उल्लेख भी है। विपश्यना साधना और गीताशास्त्र के अध्ययन के बाद मैं अपने घर पर पूजा करना ज़्यादा अच्छा समझने लगा हूँ।
4. शब्द विलास से बना ली दूरी : विपश्यना साधना में भावनामय प्रज्ञा को विशेष रूप से रेखांकित किया गया है। भावनामय प्रज्ञा यानी अनुभव पर आधारित ज्ञान। अनुभव के अभाव में कोई भी बहस शब्द विलास ही होती है। आज सारा देश वाणी और शब्द विलास में अपनी ऊर्जा नष्ट कर रहा है। जिन नेताओं के साथ हमारी कोई भावनात्मक प्रज्ञा नहीं है, उनकी छवि को लेकर हम आसक्त हो गए हैं। उनकी वह छवि भ्रामक भी हो सकती है, हम क्यों आसक्त हों। मैं पेशेवर रूप से सभी ख़बरों को बारीकी से पढ़ता हूँ। उसकी धार मैंने बिलकुल कुंद नहीं होने दी है, लेकिन वाणी और शब्दविलास में रुचि घट गई है।
5. न्यूनतम आवश्यकताओं में असली ख़ुशी : विपश्यना साधना के दौरान दस दिन एक कमरे में व्यतीत किए, जिसमें कोई कूलर या एसी नहीं था। हाँ, पंखा ज़रूर था। इस दौरान मेरे पास सिर्फ कुछ कपड़े थे। अगस्त- सितम्बर की आद्रता के बावजूद एसी की कमी महसूस नहीं हुई। स्वच्छ और निर्मल दुनिया में रहने का अद्भुत आनंद था। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था ने हमारे दिमाग़ पर कब्ज़ा करके हमें नित नई चीज़ें खरीदने की अंधी दौड़ में उलझा दिया है। असली सुख न्यूनतम में हैं। जापान में बड़ी-बड़ी कंपनियों के कुछ सीईओ न्यूनतम आवश्यकताओं के साथ आराम से जी रहे हैं, लेकिन हमारा नव धनाढ्य अभी आत्म मुग्ध है।
विपश्यना साधना के समापन पर मैंने अपने आचार्य से प्रश्न किया था कि शिविर के दौरान हमें बाहरी दुनिया के संपर्क में आने से क्यों रोका जाता है । आखिर इसके पीछे का तर्क क्या है? आचार्य ने अपना उत्तर इन शब्दों में दिया था- क्या चिकित्सक दिमाग़ के ऑपरेशन के दौरान किसी मरीज को ऑपरेशन थिएटर से बाहर ले जाने की अनुमति देते हैं। वे कदापि ऐसा नहीं करते, क्योंकि इससे मरीज को संक्रमण लग सकता है। विपश्यना में दिमाग़ का आध्यात्मिक ऑपरेशन होता है। उस समय साधक का दिमाग़ खुला हुआ होता है। यदि शिविर के दौरान साधक बाहर जाएगा तो उसे संक्रमण हो सकता है।
आचार्य के शब्दों का अर्थ है कि हमने इस दुनिया को अपने वैचारिक विकारों से अत्यधिक दूषित कर दिया है। जरा विपश्यना साधना करके तो देखिये दुनिया कितनी निर्मल है। अध्यात्म के आनंद और प्रकृति के आँचल की अनुभूति मैंने स्वयं की है। यह मेरी भावनामय प्रज्ञा है।
विश्वदीप नाग, स्वतंत्र पत्रकार
भोपाल (मध्य प्रदेश)
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